बदबू, a story by Sanket karjule

बदबू

बदबू

आनंद आने वाला था। ऐसा नहीं था कि वह दोनों पहली बार मिल रहे थे। फिर भी पता नहीं क्यूँ निद्रा को बेचैनी हो रही थी। हालांकि आनंद ने ही उसे बुलाया था। जबकि वह अभी तक आया नहीं था। वह पार्क में बैठी उसका इंतज़ार कर रही थी। आनंद आया। हाथ को पीछे बांधे। शायद कुछ छुपाने की कोशिश कर रहा था। आनंद की मूरत देख उसकी आंखों में चमक उठी। अधर पर हल्की मुस्कान तैरने लगी। इंतज़ार करवाने का जो मासूम गुस्सा था वह आनंद के आने की खुशी में पिघल गया था। फिर भी वह बेंच पर बैठी पता नहीं क्यूँ आनंद से नज़रें चुराकर सामने देखने लगी। मानो गुस्सा दिखाने का एक छोटा सा प्रयास ताकि अगली इंतज़ार न करना पड़े। आंखें फिर भी इस तरह चहक रही थीं जैसे चुप-चुप के आनंद को देखने की कोशिश कर रही हो । आनंद उसी तरह बेंच पर बैठा सामने की ओर तकने लगा। पता नहीं दोनों उस खाली आसमान में क्या ढूंढ रहे थे।
“सॉरी!” आनंद ने कहा ।
“अब तुम्हे पता ही है मैं माफ तो करूंगी ही। क्या करूँ ज्यादा देर तक एक ही मूड़ में रह नहीं सकती न।” निद्रा ने उसकी तरफ देखते हुए कहा ।
रिश्ता आया था। इसलिए थोड़ा रुकना पड़ा।” निद्रा पल भर के लिए सहम सी गई। कुछ नहीं कहा। बस आनंद को देख रही थी। कुछ पल देखा और यकायक उसने अपनी गर्दन सामने की ओर मोड़ दी। अक्सर ऐसा ही होता है जिन बातों को बयां करने में हमें थोड़ी कठिनाई होती है तब अक्सर हम सामने वालों से नज़रें चुराते हैं। ताकि थोड़ी हिम्मत कर पाए। जो कहना चाहते हैं वह कह पाए। या हमारी बात सुनकर सामने वाले के चेहरे पर जो भाव पैदा हो जाएंगे या वह हमारे बारे में क्या सोचेगा, यही बातें आंखे चुराने को मजबूर कर देती है। यही बातें मन को हल्का कर देने में विलंब कर देती है।
“आनंद मुझे लगता है कि जल्दबाज़ी करने से अच्छा हम एक साथ रहे। इससे एक दूसरे को और जान जाएंगे ।” निद्रा ने कहा ।
“और क्या जानना है निद्रा? मेरी शादी हो जाएगी तुम समझ नहीं रही हो। और वैसे भी इतने दिन तो होगए हमारे रिलेशनशिप को । ” आनंद ने पूछा।
“मैं एक साथ रहने की बात कर रही हूं। “निद्रा ने कहा ।
“लिव इन?” आनंद ने कहा ।
“हूँ! मतलब ऐसे तो सब ठीक ही लगता है पर जब साथ रहेंगे तो और बेहतर समझ पाएंगे और सही डिसिजन ले पाएंगे।” निद्रा ने कहा।
पर अचानक यह सब? हमने जब फ़ोन पर बात की तो तुमने ‘हां’ कहा था। अब यह…” आनंद ने कहा। निद्रा ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। शायद उसकी आंखें भी जवाब तलाश रही थी।
“तुम अखबार नहीं पढ़ती न …. लिव इन भी पॉसिबल नहीं है। हर तरफ से । वेट करते रहे तो वेट ही करते रहेंगे।” आनंद ने कहा ।
“फिर क्या करें? सीधा शादी? अरे अब तुम्हे आसान लग रहा है पर बाद में…. मैं बस इतना
कहना चाहती हूं कि मुझे लगता है हमे थोड़ा और वेट करना चाहिए। ” निद्रा ने कहा ।
तुम समझ नहीं रही हो मेरी शादी हो जाएगी। मुश्किल से मैंने मम्मी को बताया वह कुछ तो
करके पापा को रोके हुए है। पर यह ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता । ” आनंद ने कहा।
निद्रा ने कुछ नहीं कहा। दुविधा में पड़ गई थी। क्या कहे क्या करे?
“क्या हुआ निद्रा कुछ हुआ है क्या?” आनंद ने कहा ।
“रानी आई है। सब कुछ छोड़-छाड़कर।“
“लेकिन तुमने तो कहा था अविनाश और वह रिलेशनशिप में थे फिर?”
“कह रही थी शादी के बाद सब बदल जाता है। कुछ भी पहले जैसा नहीं रहता। अविनाश काफ़ी insecure सा हो गया था। हमेशा डाउट ! क्यों कैसे कहाँ कब ! फिर यह आए दिन होता रहा और……गहरी चोट आई है उसे । ” निद्रा ने कहा ।
“ओह!” आनंद ने कहा ।
“कह रही थी तुम से ना मिला करूँ। ” निद्रा ने कहा । आनंद ने कुछ पल उसकी आँखों में देखा। शायद वह कोशिश कर रहा था समझनेकी की यह रानी कह रही है या …..
“अच्छा हुआ वह निकल आई वहां से। वेरी गुड डिसिजन । सिंपल ही तो है नहीं वर्क आउट होता तो निकल जाओ टॉक्सीसिटी क्यों बढ़ाए। लेकिन कुछ लोगों के ग़लत कर देने से हर कोई ग़लत साबित नहीं होता। सबकी अपनी-अपनी सोच होती है। सेल्फ कंट्रोल होता है रानी के साथ जो हुआ उस बेसिस पर तुम कैसे अपना डिसिजन बना सकती हो?……दूसरों का छोड़ो तुम क्या चाहती हो?” आनंद ने कहा ।
“आनंद मैं तुम्हे जानती हूं। मैं जानती हूं तुम नहीं हो वैसे। I feel safe with you पर रानी ने भी तो शादी ही कि थी। अगर एक दूसरे को ठीक से समझा होता तो…..”
“और कितना समझते? नहीं होती वर्कआउट शादियां। अब रानी के साथ वैसा हुआ इसका मतलब यह नहीं कि मैं भी तुम्हारे साथ वही सब करूंगा। मैं मानता हूं तुम्हारा डर सही है पर सबको जनरलाइज़ करना वह भी सही नहीं है न।” आनंद ने कहा । निद्रा की आंखें भर आईं थी। आनंद ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया। अक्सर किसी अपने की आगोश में अंदर का सारा दर्द क्षणभर में मिट जाता है।
“चलो! चलो बस हो गया यह देखो मैंने क्या लाया” उसने नीचे ज़मीन की ओर बैंच के पय्ये के पास जो गुलदस्ता रखा हुआ था उसे उठाया और कहा- “हैप्पी एनीवर्सरी
दो साल हुए थे उनके इस खूबसूरत से सफर को । यह ट्रैन आज ज़रा सी लड़खड़ाई पर फिसली नहीं उसी पटरी पर मौजूद रही। क्योंकि विश्वास की बुनियादी ढांचे पर यह पटरियां उभरी हुई थी। दोनों एक दूसरे की आगोश में इस तरह खो गए थे मानो उस कल्पना की दुनिया में अपना एक ऐसा घर बसा रहे हो जहां सिर्फ प्रेम हो। कोई रोक-टोक सवाल कुछ नहीं। बस एक दूसरे की प्रति गहरा विश्वास हो । उन्होंने एक दूसरे को इस तरह भिंच लिया था जैसे उस घर की दीवारों को और मज़बूती दिलाने की कोशिश कर रहे हो । धड़कने और सांसों की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी। कुछ और नहीं न कहीं जाना न आना बस यहीं रहना चाहते थे वह दोनों। उसी वक्त में। उसी क्षण में। एक दूसरे को इस तरह कसा हुआ था जैसे अलग होने का डर भीतर कहीं पनप रहा हो। आसपास कोई नहीं था बस वह दोनों !
प्रेम एक पौधे की तरह होता है। जो धीरे-धीरे आकाश की ओर बढ़ता जाता है और एक विशालकाय वृक्ष का रूप धारण कर निस्वार्थ भाव से उसकी गोद में पलने वालों को अपने-पन की छाया में जिलाता रहता है। पर प्रेम सच में हो तो! क्योंकि हाल ही में प्रेम की व्याख्या बहुत बदल गई है। वगैरह-वगैरह !
कुछ देर बाद उन्होंने आंखें खोली। धक्का लगा। कुछ समय पहले तो यह मैदान खाली था। पर अब! उन दोनों के इर्द-गिर्द और चार आगए । चार कथित मर्द । संस्कृति बचाने वाले। उन्होंने निद्रा और आनंद को अलग कर दिया। मार पीट कर । लातों से घूसों से। निद्रा ताक़त लगा रही थी आनंद के पास जाने की उसको बचाने की। पर उसको दो मर्दों ने जकड़ रखा था। जिसे बचपन से ही कोमल बने रहने का अभिशाप मिला हो वह क्या ही इन भेड़ियों का सामना कर पाती। आनंद चिल्ला रहा था पर आसमाँ में हवा इस कदर गुमसुम थी कि उसकी आवाज़ उस हवा में गूंजने के बजाय गायब हो रही थी। कोई नहीं था आसपास । कोई नहीं। बहुत मारा आनंद को। खून बहने लगा था मुंह से । फिर भी रुके नहीं। अब बची निद्रा । आनंद को बेसुध अवस्था में छोड़ वह दो भेड़िए अब निद्रा की ओर बढ़ते चले आ रहे थे। शिकार नज़र आई थी न । मादा! मादा सदियों से शिकार ही बनती आई है। सदियों से उसने अपनी इस तस्वीर को बदलने की बहु कोशिश की पर उसके शरीर पर लगे यह मांस के पुर्जे, जो सृष्टि को आगे बढ़ाने की क्षमता रखते हैं उनको मैला होने से बचाने में वह कई बार हारती आई है । क्युँकि जो उन भेड़ियों की नज़र में निद्रा एक शरीफ लड़की नहीं थी तो उनको लगा वह यूँ करके तैयार हो जाएगी। मना नहीं करेगी।
शरीफ लड़की! कौन होती है? चौखट के भीतर रहने वाली । बाहर घूमती है तो रंडी? इशारे भर से टांगे फैलाती है? शायद यही सोचा होगा भेड़ियों ने। एक ने उसकी कुर्ती को हाथ लगाना चाहा। निद्रा ने ज़ोर से धक्का दिया। पर भेड़िये इतने में रुकने वाले थोड़ी थे। उन्होंने उसके कंधों को दबोचना चाहा। फिर वही । अब वह ज़बरदस्ती पर उतर आए। पता नहीं निद्रा में कहां से इतनी ताकत आई थी उसने ज़ोर से लात मारी । वह झटपटा कर फिर उठा। गुस्सा आया उसे। था तो मर्द ही। औरत कैसे उस पर हावी हो सकती थी । उसके मैं को ठेस पहुंची। एक इशारा भर था कि सारे के सारे टूट पड़े निद्रा पर । मानो बीच में एक मांस का टुकड़ा पड़ा हो और कई प्यासे भेड़िए उसको खाने के लिए फड़फड़ा रहे हो। फिर भी वह उन चारों पर भारी पड़ रही थी। सदियों से समाज ने जो यह इज़्ज़त का ठप्पा उसके बदन पर लगाया था उसको बचाने के लिए। ठप्पा मिट गया तो सब कुछ ख़तम । आनंद, फड़फड़ा रहा था अपनी ही जगह पर। उसकी आंखों के सामने यह सब हो रहा था और वह कुछ नहीं कर पा रहा था । हिलने-डुलने का भी प्राण नहीं बचा था उसमें। और तभी ! थक हारकर दिमाग़ चलाया एक भेड़िए ने । नज़र गई उसकी आनंद की ओर। चाकू निकाला और सीधा आनंद की गर्दन पर । फिर भी निद्रा कैसे तैयार हो जाती। उस भेड़िए ने आनंद की छाती पर सट से वार किया । निद्रा ऐसी चिल्लाई की गगन को चीरकर उसकी आवाज़ उस ‘कृष्णा’ तक पहुंच गई होगी जिसने कभी द्रौपदी की आबरू बचाई थी। पर कोई नहीं आया। और एक वार हुआ आनंद के शरीर पर । उसकी तो आवाज़ भी नहीं निकल रही थी। बस फड़फड़ा रहा था। यह देख निद्रा पड़ी रही। हाथ पैर छोड़ दिये। आंखे अभी भी आनंद की ओर। पर पूरा शरीर पत्थर बन गया था। आनंद से प्रेम था न उसे । भेड़ियों ने इस तरह उसके कपड़े फाड़े जैसे मुर्गी छिल रहे हो। आनंद और फड़फड़ाने लगा। उस तरह जैसे मुर्गी की गर्दन मरोड़ी जाती है। वह फड़फड़ाती है आखरी तक लेकिन हलक से एक आवाज़ तक नहीं आती। कभी जिन छातियों का दूध पी-पीकर यह भेड़िए इस दुनिया में संभल गए होंगे। उन्हीं छातियों को देख उनके भीतर हवस पैदा होने लगी। वह कोमल शरीर अब भेड़ियों के हाथों में था । वक्ष को इस कदर मसलने लगे जैसे कीचड़ पैरों तले कुचल रहे हो। टांगो को कसके पकड़ा। फिर क्या एक के बाद एक आता रहा जाता रहा। शायद वह भूल गए थे कि वह आए तो थे संस्कृति बचाने, पर उन्होंने संस्कृति को अपने ही हाथों रौंद डाला था। अब तो टांगो के बीच में से खून बह रहा था। फिर भी कोई रुका नहीं। एक के बाद एक। एक के बाद एक । आनंद क्या कर सकता था। बीच में उसने सोचा भी “अपने हाथ से ही खुद की गर्दन काट डाले कम से कम निद्रा तो बच जाएगी। पर अगर मेरे मरने के बाद भी उन्होंने नहीं छोड़ा तो ….” उसकी आँखों से बस आँसू बह रहे थे। वह भी पत्थर बन गया था। बस आँसू बहाता पत्थर ।
छोड़ दिया तीन भेड़ियों ने निचोड़ के । कुछ नहीं बचा। पर एक अब भी बाकी था उसकी बारी थी। उसने शायद बड़प्पन दिखाया होगा ‘पहले तुम बांटकर खाओ फिर मैं!’ अब उसकी बारी थी। उसने आनंद को फेंक दिया घास पर और वह अपना हिस्सा बटोरने आया । निद्रा का नंगा शरीर देखा। टांगो के बीच से खून बह रहा था तो डर गया बेचारा । पर मौका कैसे छोड़े। उसने उस पत्थर को पलट दिया। अपनी पैंट खोली फिर पूरी ताकत से निचोड़ने लगा। थक गया। फिर कि मर जाएगी बेचारी | ज़िंदा छोड़ देते हैं। भाग गए।
अहसास हुआ
‘बदबू सी आती है बदन से
कितना खरोच – खरोच कर घिसाया
यहां तक चमड़ी भी उधेड़ दी खुद की ही
बावजूद इसके यह बदबू क्यूँ मिट ही नहीं रही
है कोई साबुन जो इसको मिटाकर
नई शुरुआत की महक भर दे
है कोई साबुन जो हर जहां से मिटा दे इस घटना को
समाज से
लोगों के ज़ेहन से
उसके दिल से
मेरे अपनों के दिल से
खुद मेरे बदन पर से
है कोई घड़ी जो मिटा दे उस बीते हुए को
मोड़ दे मेरी ज़िंदगी को
फिर से उसी खूबसूरत पटरी पर
जहां से कभी यह प्रेम नाम की ट्रैन गुज़रा करती थी
सोचती हूँ आज ज़िंदा क्यूँ हूँ मैं
मार देते तो बेहतर हो जाता
यह कहानी ही मिट जाती
फिर ग़लती से भी इस जहां में कभी कदम नहीं रखती
पर होता
कुछ
इससे?
मिट जाता वह सब?
नहीं!
क्युँकि यह कहानी ही कुछ ऐसी है
लिखने वाले से ज़्यादा जिन पर लिखी जाती है उनको उम्र भर जलाती रहती है
कोई कितनी भी कोशिश करे
पन्ने फाड़ दे
जला दे
गाड़ दे
कभी मिट नहीं सकती यह कहानी
वह एक ज़िन्दगी के साथ
इर्द-गिर्द की कितनी ही जिंदगियों को लेकर दफन हो जाती है…..”
मुकदमे चलते रहते हैं। क्युँकि केस आते हैं जाते हैं। या तो दफ़न हो जाते है या सालों साल चलते रहते हैं। इससे होता क्या है? कुछ नहीं। पीड़ित बार – बार आपबीती बताती रहती है। न चाहते हु भी उसे बार-बार घावों को ताज़ा करना पड़ता है। वही सवाल वही जवाब । अब वह अपराधी कैदी तो बन जाते है पर वह सोच जो उनके भीतर पनपती है उसका क्या? और लोग भी उन्हें ‘हैवान’ ‘राक्षस’ या सोसायटी से अलग कहकर भूल जाते हैं। जब कि बात यह है वह राक्षस या दानव नहीं है । इंसान है। चलते फिरते इंसान। उनके भीतर जो सोच पनप रही है उसके बारे में सोचने की ज़रूरत है क्युँकि उनको अगर फांसी दी भी मिल गई तो सिर्फ उनका शरीर मर जाएगा पर वह सोच उनके बाद भी किसी न किसी के भीतर पाई जाएगी।
निद्रा को घर लाया गया। अस्पताल में थी। सदमे में चली गई थी। मतलब अब भी है। कुछ कहती नहीं। एक जगह पर बैठी है तो बैठी है। सोई है तो सोई है। कुछ महसूस नहीं होता उसे। कौन आया। क्या कहा। कुछ नहीं। पत्थर सी बन गई थी। कोई भाव नहीं । न खाने का ध्यान न पहनने का। अब तो बदन पर कपड़े भी चुभने लगे थे उसे। इसलिए कभी-कभी उतार फेंकती। उसकी माँ अपना रोना-धोना छोड़कर उसे संभाल रही थी मासूम बच्ची की तरह । और कोई था नहीं। माँ उसके कमरे में ही रहने लगी थी। क्युँकि निद्रा अचानक नींद में से उठ जाती चिल्लाने लगती। खुद को नोचने लगती। ऐसे में एक अकेली औरत का उसको संभालना मुश्किल तो था पर संभाल रही थी। क्युँकि उसके पिताजी उसके कमरे में जा नहीं सकते थे। न भाई जा सकता था। निद्रा के दिमाग पर जिन चेहरों ने गहरा आघात किया था वही चेहरे उसे हर एक मर्द में नज़र आने लगे थे। जब भी कोई आदमी उससे मिलने आता तो उसका नियंत्रण टूट जाता और वह कुछ न कुछ फेंक के मारने लगती। इसलिए डॉक्टर ने कहा भी था की घर के और बाहर के आदमियों से इन्हें दूर ही रखिए। दिमाग पर गहरा असर हो गया है। जब-जब यह किसी आदमी को देखेगी वह बीता हुआ फिर एक बार दिमाग़ में ताज़ा हो जाएगा और वह अपना आपा खो देगी। बस कुछ दिन के लिए। जब दिन बीतते जाएंगे तो चीज़ें बेहतर होती जाएंगी। और कुछ कह नहीं सकती। डॉक्टर ने यह बस यूँ ही कहा था ताकि उसके माता-पिता का हौसला बना रहे। क्युँकि एक औरत होने के नाते और रेप पीड़िताओं का इलाज करने के बाद उनको यह तो मालूम हुआ था कि यह कहानियां पीड़िताओं के बदन पर से इतनी आसानी से नहीं मिटती। वह अगर मिटाना भी चाहे तब भी कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है जिस कारण यह घाव फिर से हरे हो जाते हैं और वह उस घाव की पीड़ा से कराहने लगती है।
दूसरी ओर आनंद अब पहले से बेहतर था। लेकिन किसी से बात नहीं करता था। तबीयत ठीक थी। शरीर के तौर पर बस । दिमागी तौर पर नहीं । चल तो सकता था लेकिन चौखट लांघने की कोशिश नहीं कर पाया। लोगों के सवाल, उसका क्या? लोग सवाल पूछने से पहले सवाल की गहराई तक थोड़ी ही जाते हैं, ज़ुबान पर जो आया बक दिया। लोगों के लिए वह भी रेपिस्ट बन गया था। निद्रा का रेपिस्ट । जिससे वह प्रेम करता था उसी का। ऐसे वक्त में खुद को संभाल पाना मुश्किल होता है पर अच्छी बात यह थी कि घर वालों का साथ था। बावजूद उसके भीतर एक गिल्ट पनप रहा था । निद्रा को बचा न पाने का गिल्ट | उसकी आंखों के सामने यह सब हुआ था न। वह जब भी खाली बैठा होता उस बीते हुए का अंधियारा उसके इर्द-गिर्द मंडराने लगता। वह कांप उठता। सिसकता इसके अलावा और कर भी क्या सकता था। उस बीते हुए को मिटा तो नहीं सकता था। एक सवाल अब भी उसे पछतावे की आग में जला रहा था – “क्यूँ?” क्यूँ उसने निद्रा को वहां बुलाया था। अगर उस दिन नहीं बुलाता तो शायद यह होता ही नहीं! यह “क्यूँ?” बड़ा परेशान करता है। जब भी हम कुछ करने की चाहत में कुछ कर बैठते हैं और वह चाहत ग़लत मोड़ लेती है तब यही सवाल हमें बार बार परेशान करने लगता हैं- “क्यूँ?” क्यूँ मैंने बुलाया? क्यूँ मैं वहां चला गया? क्यूँ मैंने यह किया? क्यूँ मैंने सोचा नहीं? क्यूँ मैंने किया नहीं? या क्यूँ मैंने किया? क्यूँ? वगैरा वगैरा। यह “क्यूँ”का पछतावा बड़ा ही लम्बा होता है। ख़तम ही नहीं होता। जीवन के हर पड़ाव पर अचानक मौजूद हो जाता है। फिर हम खाली हाथ बस उस सवाल को देखते रहते हैं क्युँकि हमारे पास इस “क्यूँ?” का कोई जवाब नहीं होता।
निद्रा अपने ही जिस्म से नफ़रत करने लगी थी। बू आती थी उसे। ऐसी बू जो किसी भी साबुन से मिट नहीं रही थी। एक बार सूंघती तो सारा पुराना एकदम से ताज़ा हो जाता। एकदम से आपा खो देती। उभरी हुई छातीयोंको इस कदर मसलने लगती मानो वह उन मांस के गोलों को तोड़कर कहीं फेंकना चाहती हो। बदन को नाखूनों से खरोचने लगती। खुद से ही घिन आ रही थी। सोच रही थी कि यह छातियां जो किसी को अमृत पिलाया करती होगी पर मेरे किस काम की। इन्हीं को देखकर ही तो उन हरामज़ादों ने मेरे कपड़े फाड़े। मुझे नंगा किया। टांगे दबोची। बहुत दर्द होता है। पर कोई मरहम भी नहीं मिल रहा जो आराम दे । ‘क्यूँ ज़िंदा हूँ मैं? मर जाती तो बेहतर होता। यह बदबू मिट ही नहीं रही । ‘ पता नहीं वह क्या – क्या छिड़क रही थी अपने बदन पर। उसके नियंत्रण का बांध टूट गया था।
माँ नहीं थी कमरे में। शायद कुछ लाने गई हो। निद्रा अकेली थी। वह जो कुछ कर रही थी उसके भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कर रही है। कहाँ से उसने चुन्नी निकाली। कब लटकाई। कुर्सी पैरों के नीचे से खिसक गई। फंदा फंस गया। उसकी देह फड़फड़ाने लगी। एक पल में बीता हुआ आंखों के सामने तैरने लगा। बैंच पर बैठी निद्रा । इंतज़ार करती हुई। फिर आनंद! वह साथ रहने के वादें। दोनों खामोश से एक दूसरे की आगोश में खला को तकते हुए। आनंद को देख ऐसा लगा जैसे निद्रा में फिर एकवार जीने की उम्मीद जगी हो। वह जीना चाहती थी। बचने की कोशिश करने लगी पर वह फंदा और ज़्यादा कसता जा रहा था। आंखे बाहर आने लगी। ज़ुबान मुंह से बाहर लटकने लगी। फिर भी शरीर में जान अब भी थी। उसे जीना था। आनंद के लिए | उन वादों के लिए। सपनों के लिए। पर कौन बचाएगा । कोई नहीं था उस कमरे में। हलक से आवाज़ नहीं निकल रही थी। अब गई अब गई। माँ ने देखा। वह ज़ोर से चिल्लाई मदद की उम्मीद में। उसने अपनी पूरी ताक़त से निद्रा को उठाए रखा। निद्रा के शरीर ने जान छोड़ दी थी। उसका भाई और उसके पापा भागते हुए कमरे में आए। निद्रा को नीचे उतारकर अस्पताल ले जाया गया। जान बाकी थी उसमें। थोड़ी सी । एम्बुलेंस से नीचे उतरने तक। नीचे उतारा गया। पर अब वह निद्रा नहीं रही थी खामोश खला में तकती हुई लाश बन गई थी। खला में एक शोर सा बरपा । परिवार जनों का। अब निद्रा बिना किसी अपेक्षा के खामोश इस जहां से उस जहां की होगई थी। पता नहीं अदालत का नतीजा कब और क्या आएगा, पर उससे पहले ही निद्रा ने यह फैसला लिया था बदन से आ रही बदबू को मिटाने का …..

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