मृत्युभोज
मृत्यु एक सत्य!
इंसान चाहे जितने भी हाथ पैर मार ले पर इस सत्य से मुख नहीं मोड़ सकता कि एक न एक दिन उसका अंत अवश्य होगा। पर इस सच्चाई को मानने से वह डरता है। डर का कारण होता है उसका मोहबंधन, जिन मोतियों को वह जीवन पर्यन्त धागों में पिरोता है, उसके बिखरने का डर, उस धागे से अलग होने का डर। मीना इन्ही दार्शनिक विचारों में खोई स्वेटर बुन रही होती है, तभी उसकी बेटी विद्यालय से आ जाती है, अपनी बेटी की आवाज सुनकर वह जल्दी से स्वेटर बुनना छोड़ कर आँगन की ओर भागती है। सोना तुम आ गई, कैसा रहा आज का दिन ? मास्टरनी जी से बात की क्या? तुम्हारी परीक्षा बाद में ले लें क्यूंकि तुम्हारी बड़ी दादी का देहांत हो गया है।
तुम्हें उनके क्रियाकर्म में जाना है। बड़ी दादी यानि मीना कि दादी सास। ऐसे तो वह ८० वर्ष की थी और अपनी पूरी जिम्मेदारियाँ निभा चुकी थीं। तीन बेटों की शादी कर, पोते-पोतियों की शादी और उनके बच्चों तक का मुंह देख लिया था लेकिन मृत्यु तो हमेशा ही दुखद होती है। हमारे हिन्दू समाज में क्रियाकर्म में भी बारह-तेरह दिन लग जाते हैं। अब चाहें बच्ची की परीक्षा हो या बेटी का व्याह, सब रोक कर अगर आप नहीं गए तो समाज का ताना तो सुनना ही होगा। लोग अपने पर कम ध्यान और दूसरों पे ज्यादा ध्यान जो देते हैं।
मंडली बैठ जाएगी ऐसा कैसा जरुरी काम कि दादी सास के मृत्युभोज में न आ सके। बेटी की परीक्षा रोककर भी मीना को जाना तो था ही, तो वह सुबह ही मास्टरनी जी के नाम सोना के हाथ अर्जी भिजवा दी थी। जल्दी से हाँथ मुंह धो ले बेटा और खाना खा ले आज रात को हमारी ट्रेन है। मीना रात की ट्रेन से रवाना होकर सुबह अपने ससुराल पहुँचती है। जैसे ही वह घर के चौखट पे पैर रखती है, घर की औरतें जोर-जोर से विलखना शुरू कर देतीं हैं, पुरे घर में क्रंदन का माहौल बन जाता है। दस-पंद्रह मिनट तक ऐसा चलता है फिर सबकुछ शांत हो जाता है।
लोग आपस में बातें करने लगते हैं, मीना इस बात को समझ नहीं पाती और अपने पति से इस बारे में पूछती है, तो उसे पता चलता है यह परम्परा है, किसी भी घर के सदस्य या रिस्तेदार के आने पर ऐसा क्रंदन करना होता है। वो इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देती और क्रियाकर्म से जुड़े घर के काम में लग जाती है। दोपहर होती है और पंडित आते हैं और वह मीना के ससुर को लम्बी लिस्ट थमाते हैं, जिसमें वो सभी चीजें होती हैं जो उनकी माँ जीते जी उपयोग करती थीं। मीना को बड़ा आश्चर्य होता है, अजीब हमारी परम्परा है, जिसमें जीते जी इंसान को चाहे पहनने को दो जोड़ी कपड़े और चप्पल मिले या न मिले पर मरने के बाद उसके जरुरत की सारी चीजें दान दी जाती है।
अजीब विडंबना है वास्तविक संसार में कुछ दिया हो या ना दिया हो पर स्वर्ग पहुंचाने की चेष्टा जरूर की जाती है। अभी मीना इसी उधेड़बुन में होती है कि हलवाई आकर मृत्युभोज की सामग्रियों का लिस्ट पकड़ाता है। और बोलता है लगभग २ लाख रूपए खर्च होंगे। मीना किवाड़ के आड़ से सुनते हुए, एक पुरानी घटना याद करती है। जब वह दस साल पहले इस घर में बहु बनके आई थी और उसकी दादी सास घर के लोगो से मेला देखने जाने की फरमाइश कर रहीं थीं। सब उनको मेला आने-जाने, वहाँ खाने पीने पे आने वाले खर्च का हवाला देकर चुप करा देते थे।
और आज वही लोग मृत्युभोज पर लाखों लुटाने की सोच रहे थे। हम कैसे समाज में रह रहे हैं? जहाँ खोखली परम्पराओं पे तो हम लाखों खर्च कर देते हैं पर जिन्दा इन्सान पर कुछ हज़ार खर्चने को नहीं तैयार होते। किस रामायण और गीता में लिखा है कि मृत्युभोज पर पूरा गांव न्योता देकर लाखों खर्च करने पर मृत की आत्मा को शांति मिलती है। कोन सा मरता हुआ इंसान यह चाहता है कि उसके मरने के बाद उसके परिवार को उसके मृत्युभोज के लिए कर्ज लेना पड़े या अपनी जमापूँजी किसी विकास के काम में ना उपयोग कर मृत्युभोज पर खर्च करे। जो इंसान दो वक़्त की रोटी और दो जोड़े कपड़े मांगने में दस बार सोचता है कि वह किसी पर बोझ न बने।
क्या वह मरणोपरांत बोझ बनना चाहेगा?
फिर मृत्युभोज क्यूँ?
I am a PGT Chemistry teacher interested in writing Hindi poetries and short stories. Some of my poems and stories have also been published.