ऐसे मुंगेरीलाल कहलायी थी वो, a poetry by Kuntal Sanjay Chaudhari

ऐसे मुंगेरीलाल कहलायी थी वो

ऐसे मुंगेरीलाल कहलायी थी वो

ज़िन्दगी के दायरे में लिपटी थी वो,
किसी तोहफे से कम नहीं थी वो।
सूरज के किरणों को छूकर रोज,
अपने ख्वाबों को बुनती थी वो।
कभी पूरे हों, इसकी उम्मीद तो नहीं,
पर सपने देखने की चाह रखती थी वो।
रात को करवटे बदलते हुए,
उस एक दिन की राह देखती थी वो।
हवा में झूमते हुए,
अपने सपनों को पंख लगाती थी वो।
कभी बहक गयी तो,
अपने पापा की डाँट खा लेती थी वो।
फिर भी हर दिन,
नाचते गाते मुस्कुराते चहकती थी वो।
किसी का बोझ नहीं,
किसी की ज़िम्मेदारी उठाना चाहती थी वो।
जिसने पैसे कमाने का सपना नहीं देखा,
पर शोहरत की भूखी थी वो।
इस ज़िन्दगी के मेले में,
बिछड़ी अपनी तक़दीर को ढूंढ़ती रहती थी वो।
कभी कभी हार कर सिसक लेती थी वो,
पर फिर खुद ही को समझा बुझाती थी वो।
कुछ कहानियाँ ना मेरी ना तुम्हारी होती है,
ये तो हर घर की बेटी बतलाती है।
खुद से ऊपर हम सबको सर आँखों पर रखते है,
इसीलिए ज़िन्दगी में रोज कोई ना कोई मुंगेरीलाल कहलाती है।
जब सपनो की चाह में,
कोशिशों के रास्ते में और कुछ कर दिखाने के दायरे में,
औरों की खुशियाँ और इज्जत बीच में आने लगे,
फिर भी निडर वो खड़ी हो,
अपने सपनो के लिए बेफिक्र आगे बढ़ी हो,
और फिर भी जो सबको लेकर बढे आगे।
तब वो मुंगेरीलाल कहलाती है।
तब वो मुंगेरीलाल कहलाती है।
जो हर रोज किचन में जाके,
अपने माँ से कहती, देखना माँ में ये करुँगी, में वो करुँगी,
ज़िन्दगी कम जियूँ, पर यू जियूँ, की लोग भी कहे की क्या जिए हो,
और हर बार, उसकी माँ मुस्कुराते हुए उससे कहती,
अरे मेरे मुंगेरीलाल के हसीन सपने,
ऐसे ही मुंगेरीलाल कहलायी थी वो।
ऐसे ही मुंगेरीलाल कहलायी थी वो।

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