कलि की सुन्दरता
एक बाग मै एक दिन कलि लगी,
सुंदर, मनमोहक कलि लगी।
नाजुक सी वो, कोमल थी वो, नन्ही सी
सबको प्यारी थी वो ।
पवन से शान से लहराती
ना अधेड पत्तो सी गिर जाती वो ।
एक बाग मै एक दिन कलि लगी,
सुंदर, मनमोहक कलि लगी।
न जाने वह अपने आप ही एक दिन खिल उठी ।
न जाने क्यो वो फुल बन गयी,
माली को डर सताने लगा
पिता का मन हो जैसे
सहमा से रहने लगा।
एक बाग मै एक दिन एक कलि लगी,
सुंदर, मनमोहक कलि लगी।
ज्वल सा जो खिला था पुष्प,
सुंदर थी जिसकी आभा ।
बिछड़ गया वो डाली से,
कैसी कठोर नियती थी,
कुछ भी ना हो सका उस माली से ।
एक बाग मै एक दिन एक कलि लगी,
सुंदर, मनमोहक कलि लगी।
उस फुल के भाग मै तो,
कुछ और लिखा था।
पंडित के द्वार हो पहुंचा वो,
प्रभु के चरणो मै
उसका उद्धार हुआ।
एक बाग मै एक दिन एक कलि लगी,
सुंदर, मनमोहक कलि लगी।
कही फूल हुए ऐसे
जो उस डाल पर सिमट कर रह गए
एक दिन,
उससे टुट कर भी गीर गए
पैरो के निचे कुचल गए।
एक बाग मै एक दिन एक कलि लगी,
सुंदर, मनमोहक कल लगी।
फुल अगर कष्ट थोडा सा,
वह सह लेते।
तो यो नही मुर्झाते,
सोने के पिंजरे मै।
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