कृष्ण-द्रौपदी संवाद
हे कृष्ण सखा बल्दाई,
मेरे पालनहार कन्हाई।
मैं सखी तुम्हारी कृष्णा,
चाहती तुमसे कुछ कहना ।
जिस सभा कलंकित में तुमने,
सम्मान को मेरे बचाया था।
नारी को गरिमा का कान्हा,
हां मान तुम्हीं ने बढ़ाया था।
तब दृढ़ विश्वास हुआ मुझको,
तुम सचमुच सबके रक्षक हो।
पापियों के काल हो तुम,
सर्वनाशक हो, भक्षक हो ।
पर प्रश्न है मेरे मन में उठा,
होता है कुतूहल सर्वदा |
मेरी दुविधा सुलझाओ तुम,
हे कृष्ण, सखी को बतलाओ तुम ।
क्या कलियुग में भी पापों का,
हां सर्वनाश तुम्हें करना है?
क्या कलियुग में भी हैवानों से,
गोविंद तुमको लड़ना है?
नारी का जो अपमान करे,
उसका वध तुमको करना है?
यदि कोई सखी तुम्हे फिर से बुलाए,
उसका रक्षक तुम्हें बनना है?
हे सखी सुनो! बोले मोहन,
धीर धरो, बोले मोहन ।
कलियुग का प्रकोप अभी बाकी है,
हां, घोर कलियुग अभी बाकी है।
पाप चरम सीमा पर होगा,
दुराचार बढ़ जाएगा।
नारी सम्मान हरण होगा,
ये कृष्ण कर ना कुछ पाएगा।
बाजारों में हर दिन,
सम्मान बिकेगा हाथों से।
विवशता से परिपूर्ण,
तुम्हारा सखा असहाय रह जाएगा।
इज्ज़त नारी की घर बाहर,
हर ओर ही लूटी जाएगी।
फिर भी चुपचाप वो बेचारी,
हर दर्द को सहती जाएगी।
इंसानों के द्वारा अपनी,
मर्यादा तोड़ी जाएगी।
जान की कीमत लगेगी उसकी,
नहीं वो बख्शी जाएगी।
जिस प्रकार उस चौसर की सभा में,
मूक बधिर सब बैठे थे।
उसी प्रकार से कलियुग में भी,
अंधों की भांति मुंह फेरेंगे।
वो रहेगी चीखती चिल्लाती,
मांगेगी अपनी लाज की भीख ।
अन्याय को देख भी करो अनदेखा,
मिलेगी उसे यही तुच्छ सीख।
इंसानियत की जगह इंसान में,
हैवानियत ही पनपेगी।
असहाय हो न्याय की
चाहत में वो दर दर भटकेगी।
संवेदना शून्य होकर के सभा,
उसकी पीड़ा को देखेगी।
थोपेगी दोष उसी पर,
उसे चरित्रहीन वो बोलेगी।
तब नारायण चाहकर के भी,
कुछ न कर पाएंगे।
उसकी वेदना से हो आहत,
वे भी अश्रु ही बहाएंगे।
पर सुनो हे बहना एक संदेश,
मैं यहीं पे देना चाहता हूं।
सच्चाई संसार की सामने कृष्णा,
तुम्हारे रखना चाहता हूं।
हर नारी में होंगे नारायण,
द्रौपदी न वो बन पाएगी।
खुद की शक्ति को पहचानेगी,
यदि मेरी सखी ये चाहेगी।
उसको अपने अंदर का कृष्ण जगाना होगा ।
दुःशासन, दुर्योधन को स्वयं ही मारना होगा ।
अन्याय सहन नहीं उसे,
अन्याय संहारना होगा ।
वेदना व्यथा को त्याग,
उसे रण में दहाड़ना होगा ।
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