पतझड़, a poetry by Kumar Thakur, Celebrate Life with Us at Gyaannirudra

पतझड़

पतझड़

जब धरती के कैनवास पर
उदासी की सियाही जमने लगे,
तब समझना
दूर क्षितिज से
दबे पाओं
पतझड़ का आगमन है
जब पंछियों की आवाज़ें
कहीं दूर वादियों से
आती हुई लगने लगें,
तब समझना पतझड़ है
जब सूखे पत्तों पर
कदम दर क़दम चलते हुए
किसी वीरान मंज़िल की ओर
जाने का अहसास हो
तब समझना पतझड़ है ..
जब खण्डहरों की टूटी दीवारों
और झरोखों से झाँकते
सूनेपन को देख कर
दिल के अंदर
कहीं तनहाई का अहसास उभरने लगे
तब समझना पतझड़ है
जब बिना पत्तों की सूनी डालियाँ
दिलकश लगने लगें
और निर्जनता का अहसास भी करा दें
तब समझना पतझड़ है
जब धरती अंबर
और सृष्टि का ज़र्रा ज़र्रा,
मौन लगने लग पड़े
तब समझना पतझड़ है
जब अतीत का बिछड़ा साथी
एकाएक याद आने लगे
और मन एकाकीपन को
पसंद करने लग पड़े
तब समझना पतझड़ है
ये पतझड़ कितना अपना
कितना आत्मीय होता है