मेरे पहाड़ के लोग

मेरे पहाड़ के लोग

पर्वतों के डेरो को छूकर,
सुनहरी खिलती धूप जहां थी,
आकाश व्यापी चिड़ियों की धुन पर,
कल कल नदिया भी थी गीत सुनाती,
इस समय चक्र की छाया में नज़ाने सब क्यूं सो गए,
हाय! मेरे पहाड़ के लोग सब नज़ाने कहा खो गए।।

लकड़ी गोबर के बने घरों में,
खिड़की से आवाज लगाते थे।।
फिर अम्मा बुबू के साथ बैठ हम,
चाय के खूब मजे उठाते थे।।
पर अब लकड़ी गोबर सीमेंट ले गया,
अम्मा बुबू यादों में धुंधले हो गए,
हाय! मेरे पहाड़ के लोग सब नज़ाने कहा खो गए।।

उन मृदुभाषी नदियों ने भी अब,
क्रोध की कमान संभाली है।
जगह जगह पर घर बिखर रहे,
मनुष्य देख रहा लाचारी है।
किसी की शादी, किसी के सपने,
पाई पाई से जोड़े वो घर अपने,
सब के सब मिट्टी में धूमिल हो गए।
हाय! मेरे पहाड़ के लोग सब नज़ाने कहा खो गए।।

इन सुंदर सरल पहाड़ों का रूप,
इस नवीनीकरण ने छीना है।
नदियों को करा कैद,
पर्वतों का सीना चीरा है।
जिस लोभ से छोड़े थे घर अपने,
ये उसी कर्म की लीला है।
सही समय पर रुक कर,
सुधार ही बचने का बीड़ा है।
नही तो फिर हृदय पीड़ा में,आंसू पोंछे सोचोगे।
की मेरे गांव के आंगन कब भूताहा शहर हो गए,
हाय! मेरे पहाड़ के लोग सब नज़ाने कहा खो गए।।