अकेला बगुला, a poetry by Gaurav Kumar

अकेला बगुला

अकेला बगुला

देखा एक शाम एक बगुले को
आकाश में अकेले उड़ते,
ना जाने क्या पाने की ज़िद लिए
हवा के विरुद्ध मुड़ते!
छोड़ा इसके साथियों ने है इसका साथ,
या ना रख पाया उनके बीच ये अपनी बात!
सोचता हूँ,
काफिर बन उड़ चला है,
या बना अपने मन का जोगी,
ना जाने काफिले से अलग होने की
क्या वजह रही होगी!
शायद नए मानसरोवर की
होगी इसे तलाश,
पर भला ऐसी भी क्या तलब,
क्या वो प्यास!
जो छोड़ चला वो पोखर का किनारा,
जिस किनारे बसता था इसका जग सारा!
जरूर होगी कोई वजह,
यूं ही नहीं बनता कोई आवारा,
शायद नहीं चाहता वो,
रिश्तों के बीज बोना दोबारा !
न जाने किस छितिज को
पार करने की लगाए बैठा होड़ है
अगर समझता वो मेरी बोली,
तो बतलाता की यह तो बस
जीवन का एक मोड़ है !
ना जाने क्यूँ सह रहा है,
पर खोले यह तपती धूप
क्यूँ भटका फिर रहा है,
फलक में ओढ़े यह नया रूप
भूले मन,
भटकेगा राह तू देख,
काले बादलों का घेरा
आखिर कब तक देगा यह,
खुला आसमान साथ तेरा!
किन शिकवे गिलों को
भुलाने निकला है तू आखिर,
भटके मन,
यह करें बसर तुझमे,
इनसे रिहाई ना कोई काफ़िर
आ अब,
चल मुड़ चल
बहती हवा के सहारे,
मानसरोवर को भूल,
बैठ किसी झील के किनारे
जहां तुझे कोई जानता हो,
पहचानता हो,
जो तुझे तेरे नाम से पुकारे,
आ अब,
ठहरा इस आवारगी को कहीं
उड़ता जा रहा जो तू शाम सवेरे,
चल मुड़ चल ओ आवारे
बैठ किसी झील के किनारे !!