अबला अब गाँडीव उठा, a poetry by Bhagat Singh, Celebrate Life with Us at Gyaannirudra

अबला अब गाँडीव उठा

अबला अब गाँडीव उठा

कब तक पथ-पथ लथपथ नारी यूंही फेंकी जाएगी
कब तक अस्मत रिस-रिस लोचन देवों से आस लगाएगी
यहाँ देव मौन हर बार हुए, पर वसन तेरे ही तार हुए
देखो आ धमके दुःशासन,सोया भी देखो प्रशासन
रीढ़ तोड़कर वज्र उसी की छाती में कब गाड़ोगी
अबला कब गाँडीव उठा कौरव का मस्तक फाड़ोगी॥
कृष्ण बनेगा कौन यहाँ कलयुग की इस माया में
कौन बनेगा रवि रश्मि काली अंधियारी छाया में
पूत कपूत जो भी निकले आँखों में इतना डर भर दो
आँखों के अंधो को अपने, तेज से नेत्रहीन कर दो
बहुत हो चुके शांति दिये, अब ढाल खड़ग की बारी है
अबला अब गाँडीव उठा दुःशासन से क्यों हारी है ॥
भले भीम ने चीर वक्ष लहू पीने का ऐलान किया
पर झुके हुए सिर रहे सभा में लज्जा पर न ध्यान दिया
यहाँ याचना असर नहीं है, किसी ने छोड़ी कसर नहीं है
अब हाथ की चूड़ी तोड़ो भी, चूड़ी से आंखे फोड़ो भी
पार्थ के जब हो हाथ बंधे गाँडीव की किस्मत मारी है
अबला अब गाँडीव उठा, खींची दुःशासन ने साड़ी है ॥
नारी बेबस हर बार हुई, रक्षाबंधन की भी हार हुई
नारी ने बांधे कितने ही रक्षा बंधन रूपी धागे
बांधने होंगे रक्षा सूत्र अब पुरुषों को होकर आगे
पर जब भी पौरूष हारे, मुंडमाल गले डारे
रौद्र रूप धरना होगा, सिर भीड़ पड़ी आ भारी है
अबला अब गाँडीव उठा, चंडी बनने की बारी है ॥
जांघ बिठाने के हुए इशारों की जांघे तोड़ी जाएगी
चीर को हरने वाले के लहू से कृष्णा बाल धुलाएगी
प्रशिक्षण और तैयारी के पथ से जुड़ती नारी है
आत्मरक्षा का चुन विकल्प अरि से भिड़ती नारी है
आधुनिक युग में आधुनिक, उपकरणों की भरमारी है
देखो अबला गाँडीव उठा, जा सिंहनी सी ललकारी है ॥

1 thought on “अबला अब गाँडीव उठा”

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