Poetry writing

“अम्ल” [Acid]

कभी ना कुछ अलग सी थी,

मैं भी बस सब सी थी।

बेपरवाह मुस्कान थी मेरी,

आशायें तो जान थी मेरी।

छुना मुझे भी आकाश था,

आत्मविश्वास ही मेरे सपनों का निवास था।

तेज धूप कहूँ या उसे दिन में अमावस,

घर से निकली मैं, लौट के ना आई वापस।

ज्वाला के जहर का वो एक प्याला,

छीन ले गया मुझसे जिंदगी का हर निवाला।

पीठ थपथपा कर वो सारी शाबासीयों ले गया,

दावानल के उस सागर की मुझे उदासियाँ दे गया।

मेरी तड़प का शंखनाद सुन हर तेजाब उस दिन जीत गया,

मेरे आक्रंदन में मेरी हर प्रत्याशा का सवेरा आज बीत गया।

ये कैसा है तरल, की रूह तक जल रही हूँ मैं?

ये कैसा अग्नि-द्रव की लाश सी गल रही हूँ मैं?

ऐसा क्या आ पड़ा मेरे मुहार पर ?

की लोग देख रहे तमाशा मेरी हर गुहार पर।

चेहरा है या हाड़ मास, कोई चर्म ना बचा है अब,

जग में मानवता का भी कोई मर्म ना बचा है अब।

कैसा कालकूट है ये ? जिनसे बदला मेरा आनन,

सीता को झुलसा रहा ,ये कैसा है दशानन ?

पानी सी टपक रही है खाल मेरी,

जीना है या मरना ? सांसे कर रही सवाल मेरी।

कराह रही मैं मौत से, चुप ये ज़माना क्या देख रहा है?

इंसानियत को मरते देख, क्यूँ अपनी आंखे सेक रहा है?

लिख रही कलम मेरी ,ये भी अंगारे निगल रही है,

स्याही भी झुलस-झुलस कर मोम सी पिघल रही है।

हे सूर्य, क्या तुझसे जायदा ताप इसका? ये जला रहा मुझमे पृथ्वी को,

कैसा हादसा है ये? जो दहका रहा मेरी तन्वी को।

ये कैसा दरिया आग का, कि पिघल रही सड़क पर मैं,

किस गुनाह कि मिल रही सजा मुझे, कि डेह रही तडप कर मैं।

ना जबान है ना कोई नज़र,

धड़कनो की ना कोई है ख़बर ।

वो काँच में भरी अग्नि धार ,

कर रही है मेरी चिता का श्रृंगार ।

मुकाम कह रहे हैं, कि कब आ रही है तू?

मेरी कुछ ही सांसे बच गई हैं, अब मैं क्या जवाब दु?

माँ तेरी ये लाडो, बाबा की ये बिटिया रानी ,

सारे अपने वो सपने, अपने सारे ख्वाब छोड़ ,जा रही है बन अपराध की निशानी।

जीना चाहती थी मैं, पर उसने ऐसा किया ही क्यूँ ?

जीवन मेरा मीट गया है, एक शव बन बस मैं ये कहूँ-

सहानुभूति या कोई और तंज़, विनती करूँ ,कोई ना राय दो,

मेरी मृत्यु को, मेरे सपनों को, मेरी पीढ़ा को ही न्याय दो।।

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