ईंटों का मकान
जैसे हर मकान कई ईंटों से बना होता है
हम भी कईं छोटी-बड़ी, नयी-पुरानी ईंटों से बने होते हैं
जैसे जैसे हम बड़े होते हैं हमारा क़द भी बढ़ता जाता है
नयी ईंटें जो जुड़ती जाती हैं
यही तो है जिंदगी की कमाई
अपने ख़ुद के आकार को जन्म लेते देखना
शुरू शुरू में हर ईंट का जुड़ना जान पड़ता है
पर वक़्त के साथ मुश्किल हो जाता है ये हिसाब रख पाना
अक्सर हम एक अंदाज़ा सा लगा लेते हैं
और एक कहानी का लिहाफ़ चढ़ा देते हैं ईंटों पर
फिर वही कहानी बना जिंदगी बसर कर लेते हैं
यूँ ही कट रही थी ज़िंदगी मेरी भी
की सीधे नीव ही पे वार हो गया
नीव वही जो बचपन के सयानेपन में डली थी
कब तक ढोती वो मेरी वयस्क आकांक्षाओं और निराशाओं का भार
ढह गयी वो इमारत, ढल गया वो लिहाफ़
जो मेरे मैं होने के आज तक सबूत थे
कब से ताक रही हूँ उस मलबे के ढेर को
होने और बनाने का फ़ासला तय करना आसान तो नहीं
क्या यूँ ही बिखरे रहने दूँ अपने इन हिस्सों को
या बिल्कुल पहले ही की तरह वापस लगा दूँ इन्हें
तराशने का मतलब अमूमन जोड़ना नहीं घटाना होता है
इमारात और लिहाफ़ के चुनिंदा टुकड़ों को निखार कर चलो घर बनाएँ
I am a research scientist by profession, but I have always had a poet hidden somewhere inside. I write to understand myself and to process the world around me.