एक अनमोल कथा

एक अनमोल कथा

बालमन का भोलापन
भोलेपन में एक नटखट सी छुवन,
एक पंछी आज पकड़ लूँ मैं
बंदी बना कर उसको अपना,
साहस जरा सिद्ध कर दूँ मैं।

वो जाल बिछा, वो सेंध लगी….
वो घेराबंदी आरम्भ हुई
भोला पंछी कुछ समझ न पाया,
दाने की इस तृष्णा ने …..
आज उसे कैसा फंसाया ।

शांत पड़ गया पिंजरे में वो
टुकुर -टुकुर था ताकता,
निर्बल, असहाय पड़ा हुआ था
मन ही मन स्वयं को कोसता।

इधर जीत का उल्लास है
युद्ध विजय सा आभास है,
ढाँक दिया गया पिंजरा
युद्ध विजय का जैसे कोई उपहार ।

मन गर्वित सा झूम रहा…..
अकुलाया सा घूम रहा,
दिखला दूँ आज जरा माँ को मैं
विजय गाथा बखान करूँ मैं ।

प्रवेश हुआ अब माँ का घर में
हाथ पकड़ कर खींचें, मचलें …
कि माँ जरा बस देख लें
शाबाशी दें भर भर उनको
बलैया लें आशीष दें
उपहार जो था संजो रखा
एक अनोखा विजय उपहार
उत्साह तो बस छलक रहा था।

उपहार देखती माँ आभास करती ….
एक अनमने से अपनेपन का,
देखती अपने अंर्तमन में स्वयं को ….
पंछी में परिवर्तित होते
उन्मुक्त गगन में स्वछन्द उड़ते।

प्रकट में कहती …….
उपहार नहीं बच्चों
यह एक निरीह प्राणी है,
स्वतंत्रता का अधिकारी यह भी,
इसके स्वच्छंद आकाश में।

ढका आवरण सरक गया ,
पिंजरा खुला!!!!!!!!!!
एक नवीन सत्य उद्घटित हुआ ,
चीं -चीं के कोलाहल से …
गुंजायमान हो गया वातावरण ,
कहाँ से प्रस्फुटित हो गए …
इतने नवजीवन के स्पंदन।

एक प्रहर से बैठे जो प्रतीक्षा में
लुके- छिपे पेड़ों की डालियों में ,
श्वास सी रोके….
प्रकटे यकायक….
पंछी के वो प्रिय सहोदर ।

स्वतंत्र होते देख प्रिय को ….
प्रफुल्लित हो प्रसन्नता बिखरा रहे हैं
कलरव कर स्वागत कर रहे….
अपने साथ ले जा रहे हैं।

आशा की स्वर्ण रश्मियां
अब भी आँगन में वहीं झिलमिला रही हैं,
माँ के मन में एक अभिलाषा…
बालमन सी जगमगा रही है ।

काश … मानव भी एक पंछी हो जाता,
इस स्वार्थ भरे लोलुप संसार में
ऐसा प्रेम कहीं दिख जाता.
काश… मानव भी एक पंछी हो जाता ….. ।

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