गठरी, a poetry by Bhagat Singh

गठरी

गठरी

अपने-अपने सिर पर सब, अदृश्य बोझ ले चलते
मन में सपने और आशा, बिन खाद और पानी पलते
बिन खाद और पानी पलते, सपनों में सपना एक जगता
जैसे ही खुद का बोझ बढ़े, दूजे का हल्का लगता
दूजे का हल्का लगता पर, खुद का लगता है भारी
इसी वहम में नजरें सबने,एक दूजे पर डारी
एक दूजे पर डारी नजरें, स्वयं शांति से भटके
दोषारोपण से देखो सब, काम अधर में लटके
काम अधर में लटके,देखो भारी हुआ झमेला
अहंकार का कूड़ा-करकट, दूजे के सिर ठेला
दूजे के सिर ठेला, दूजा तीजे के सिर डाले
इसी चक्र में फँसकर, सब जन गलतफहमियाँ पाले
गलतफहमियाँ पाले मन में, सब बनते ज्ञानी है
ज्ञान ढिंढोरा पीटे जाते, वश में ना बानी है
वश में ना बानी है, जिव्हा तेज तेज चलती है
संयम और सदभाव की जग में,कमी बड़ी खलती है
कमी बड़ी खलती है,कोई नया साज तो छेड़े
अमन-पवन बह करे कोप की, लू के शांत थपेड़े
हो लू के शांत थपेड़े संग में, श्वेत परिंदे गाए
एक दूजे से सांझा कर,गठरी को हल्का पाए
गठरी को हल्का पाए सुधरे, जन जन का व्यवहार
बिना गिरे सब संभले, जग का हो जाए उद्धार॥

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