तुषारिका, a poetry by Asambhava Shubha

तुषारिका

तुषारिका

कोई फर्क होगा संपत्ति और जिम्मेदारी में,
एक संजोयी और दूसरी निभायी जाती है,
वैसे कई रंग हैं इन् दोनों की भिन्नता को दर्शाते हुए,
और समरूपता शायद एक- मूल ।
जनन की मूल जननी, अथवा प्रजनन की स्रोत ज्वाला,
प्रकृति की संगिनी, जिसने वात्सल्य और प्रेरणा को अटूट बंधन में है बाँधा ;
वो कभी वृक्षों को आलिंगन में भर ‘चिपको आंदोलन’ की रूह बनती,
कभी किसी अनजान शहर में नारियल की चटनी से,
छोड़ आये घर का प्रतिबिम्ब लगती ।
वैसे तो वह कई भूमिकाओं की मुख्य किरदार है,
और कभी कभी हर भूमिका का सार है ।
एक दोस्त की माँ जब जब सर पर हाथ फेरे ,
तब गांव के आँगन में इंतज़ार कर रही अम्मा
मानो मुस्कुरा कर कह रही- “घर वहीँ
जहाँ प्रेम का एहसास है ।”
वो कभी आसमान में उड़ती हमें गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचाती है ,
कभी सैंकड़ों पौधे बंज़र जमीन पर लगा रेगिस्तान को नया जीवनदान दिलाती है ।
औरत, स्त्री, महिला, नारी, सबला-
अनेकों रूप और व्यक्तित्त्व संभाले, एक चेहरा ।

गरिमा, ममता, समृद्धि, शक्ति,
संरचना, सदबुद्धि, सुरक्षा, भक्ति ;
स्त्रीलिंग हैं ये सारे शब्द,
क्यूंकि ‘स्त्री’ है इन सब की ढाल अनवरत ।
कुदरत का करिश्मा है शायद,
या फिर कुदरत से बना, कुदरत का एक अभिन्न हिस्सा,
स्त्री का दाता होना एक संयोग कभी न हो सकता,
क्यूंकि प्रकृति जैसी वो, सींचती बनकर एक दुखहर्ता ।
मदर टेरेसा सा कृपालु दिल
जिसने जात पात के परे इंसानियत से घाव भरे,
वहीँ दूर कहीं डोना मारिया की तलवार से
स्वतंत्रता और स्वराज के फूल खिले ।
चट्टानों सी अडिग वो देश का नेतृत्व भी करती है,
और नदी बनकर अमृता प्रीतम की कविताओं से मोहब्बत की छवि बुनती है ।
वो धड़कन का आगाज़ है,
आदि से अनादि तक, सृष्टि का उपहार है ।
वो तब भी थी, वो कल भी होगी,
क्यूंकि क्षितिज और प्रभात के बीच का रास्ता
उसकी आँखों से रोशन है ।
कुदरत का करिश्मा कहाँ- वो कुदरत से है और कुदरत उससे ,
या फिर दोनों अभिन्न, जैसे उसकी योनि में पनपता उसका ही अशेष चिन्ह ।
संपत्ति और जिम्मेदारी का एक अलौकिक मिश्रण ,
वो संजोती है, वो निभाती है ,
नारी वो मूल है जिसकी छत्रछाया में
रिहायशी मुस्कुराती है ।

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