हाय! कैसी ये बीमारी
ख्वाहिशों की गर्मियों में,
तप रहीं साँसें तुम्हारी,
हाय! कैसी ये बीमारी – २!
रात दिन में खेल खेलूं,
और कभी मन से भी बोलूं,
भोख क्यों इतनी बढ़ा ली,
जो की में हूँ तुझ पर भारी
हाय! कैसी ये बीमारी – २!
ख्वाहिशें मैं हूँ ववण्डर,
उठती-गिरती मन के अंदर,
मौन तुम दिखते तो हो पर,
सोचते अपनी लाचारी
हाय! कैसी ये बीमारी – २!
मैं तुम्हारी हूँ तमन्ना,
मेरे संग तुमको ही चलना,
ज़िन्दगी के इस सफर पर,
मैं बनी मंज़िल तुम्हारी
हाय! कैसी ये बीमारी – २!
ख्वाहिशें में हूँ छलावा,
मन्नतों का हूँ कलावा,
सूत तो कच्ची है फिर भी,
बांध देती मति तुम्हारी
हाय! कैसी ये बीमारी – २!
ज़िन्दगी मेरी न पूरी,
रहती में हरदम अधूरी,
दिल तुम्हारा आशियाना,
में चढ़ी बनकर खुमारी
हाय! कैसी ये बीमारी – २!
माना मन बंदी तुम्हारा,
तेरे बिन लगता में हारा,
मेरे बिन हो तुम कहाँ फिर,
सोच लो तुम भी ये प्यारी
हाय! कैसी ये बीमारी – २!
छोड़ो-छोड़ो अब ये लड़ाई,
एक दूजे की यूँ खिचाई,
जो बंधे नियति दोनों,
तुम भी हारे मैं भी हारी,
नियति है सब पर भारी
हाय! कैसी ये बीमारी – २!

Bahut bahut gyanvardhk.,samridh soch ka paryay,,👌🏻👌🏻👌🏻
Bahot acche…😊.. Nice poetry
Bhot acha likhti hain aap