कुल्हाड़ी से कलम तक
इक रोज़ बैठी गलियारों से,
देखा था उसे चौराहे पर ।
हो दूर उजाले से बहुत,
देखा था उसे अंधियारे पर।
उसकी भुजाओं की ताकत में,
मुझको मां दुर्गा दिखती थी।
उसकी मेहनत की परिभाषा,
साहसी, वीरांगना दिखती थी।
अपने कपाल की ताकत से,
वो ढोती थी बालू मिट्टी |
पीड़ा को छिपा दुःख दर्द बहा,
न रोती थी, न खोती थी।
जो उसको देख मैंने सोचा,
उसके बच्चे भूखे होंगे।
न दूध मिला होगा उनको,
रोते होंगे, तड़पे होंगे।
जो दृश्य दिखा मुझको पश्चात,
उसे देख के मैं अचंभित हुई।
नौ बरस की थी बिटिया उसकी,
जिसे देख के मैं लज्जित हुई।
बोली मां से तू रोना मत,
तेरे अश्रु अनमोल है।
तू टूटे तो हम टूटेंगे,
तू सृष्टि, रचना, भूगोल है।
मां से बोली तू बैठ जा,
अब मैं औजार उठाऊंगी।
इस धरा को खोद कह दूंगी आज,
अपनी शक्ति दिखलाऊंगी।
आगाज़ करूंगी आज ही मैं,
विवशता नहीं दिखाऊंगी।
कुल्हाड़ी की ही नोक से मैं,
इक कलम बनाकर लाऊंगी।
I am a College Student who is passionate about learning new things.
I love to write poems.
I am pleased to go through such a lovely poem composed by you beta. Keep writing . God bless you.