भ्रम
‘कुछ टूटा है, कुछ चुभता है’
“क्या सपना है?”
अक्सर
ये होता रहता है
आधी कच्ची नींद में पलते,
सपने कितने नाजुक होते,
सच के आगे थक जाते हैं,
दुनिया से घबरा जाते हैं,
सपने ऐसे टूटेंगे,
तुम मानने को तैयार नहीं थे,
क्यों सपने बुनते हो आखिर?”
जो टूटे हैं।
‘बात नहीं
जो तुम समझे हो।
सपना कोई नहीं टूटा है,
और ही कुछ टूटा है
लेकिन
चुभता है’।
“चुभता है?
फिर शीशा होगा,
क्या आईना देख रहे थे?
या फोटो को देखदेख कर
बीते कल में घूम रहे थे?
लापरवाही में अक्सर ही,
हाथ से शीशा गिर जाता है,
टूट के अक्सर चुभ जाता है,
घाव बना देता है
ये फिर!”
‘घाव नहीं है
दर्द सा है कुछ,
है कुछ ऐसा,
टूट गया जो,
टूट गया और चुभता भी है,
समझाने की बात नहीं है,
समझ सको तो
खुद ही समझो,
कुछ ऐसा है।’
“फिर तो पक्का
दिल ही होगा,
बड़े खिलाड़ी निकले तुम तो!
लेकिन थोड़ा तो समझाओ,
क्यूँ खेला अपने ही दिल से?
क्या मालूम नहीं था तुमको,
कच्ची उम्रों में अक्सर ही
सबके दिल टूटा करते हैं।”
‘दिल?
अरे! दिल टूटे तो यार मेरे
ये दुनिया बेरंगी लगती है,
दुःख होता है,
बेचैनी में, मंजिल ओझल सी लगती है,
और फिर चैन कहाँ मिलता है?
लेकिन मुझको चैन भी है,
आराम भी है,
और मंजिल को पा लेने का
विश्वास भी है’
“फिर क्या टूटा है?”
‘भ्रम मेरा’
“और जो चुभता है?”
‘लम्हों का अहसास है शायद।’
I am working in Govt. PSU posted at Haridwar. Poetry is just a hobby. I am trying to define life and incidents in my own way.