लक्ष्य की जयकार कर
विशाल हिमगिरि के शिखर को,
लक्ष्य जब मैंने बनाया
गर्व से उन्मादित होकर,
मुझको उसने ललकारा ।
बोला! प्रबल हूँ, प्रशस्त हूँ,
अजेय, अमर हूँ।
कण-कण से मेरा यह तन,
बना विशालकाय हूँ |
असंख्य वेदना को साध लिया,
अनेकों आमोद का त्याग किया |
तब जाकर पर्वतराज बना हूँ,
आर्यावर्त का पहरेदार बना हूँ |
गर है दम तेरी भुजाओं में,
तब रखना कदम मेरी जटाओं पर |
मैं अडिग हूँ, अचल हूँ,
कर्तव्य पथ पर खड़ा हूँ।
तू भी हो स्थिर और दिखा जग को,
कोमल मन कठोर तन को |
वही साधे लक्ष्य जो सदैव बढ़ते रहे,
भेदने की चाह में हर पल तड़पते रहे |
ललकार की जय-जयकार कर
अपने मार्ग की पहचान कर |
उठ! अब बाँध कमर,
पर्वतराज से टकराव कर |
जब तक तेरा अंतर्मन टकराएगा,
लक्ष्य को तू ही करीब पाएगा |
सब्र टूटेगा,साथ छूटेगा,
हारना मत रुकना मत |
क्या हुआ? इस बार विफल हुआ तो,
तड़प जगाए रख, हौसला बढ़ाए रख |
मैं फिर से ललकार करूँगा
लक्ष्य की जय-जयकार करूँगा |
तू अब बढ़ चल, लक्ष्य को भेद चल,
आखिर जीत तेरी होगी |

This is Kumkum. I am a teacher.
Nice poem. Quite motivating.